आज भी मेरे हाथों में मेरा खत है!
जो कभी तुम्हारे लिए लिख रखे थे!
सबने पढ़ा है उसे मेरी निगाहों से!
सारे उसके दर्द से वाकिफ हैं!
पर ! शायद तुम खफा हो!
मेरी मुफलिसी भी अब
मेरे आरजुओं का दामन कुचलती हैं!
रोशनी के लिए दरीचे खोले थे मैंने!
पर रात की कायनात मेरी न हो सकी!
आईना सवाल करता है मुझसे!
मजाक उड़ाता है !
मेरे तदबीर और तकदीरदोनों पर
जब भी तफ्शीश करता है मेरे जख्मों का !
काश! तुम भी देख सकते
मेरे नासूर को !
जो ख्याल-ए-गुलशन के माफिक
शिद्दत करता है !!
-अमर कुशवाहा
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