मैं भीड़ में नहीं चलूँगा
भीड़ में मुझे चलना भी नहीं आया!
भले सारे ही जा रहे हों
क्षितिज के उस पार!
सुना है मैंने, कि
वहाँ शांति बिखरी हुयी है चारों ओर
पक्षियों का कलरव-संगीत भरा है बयार में
संतोष की आभा फैली है सबके चेहरों पर
और, प्रकृति अपने प्राकृतिक रूप में है अभी भी!
जानता हूँ मैं तुम्हारे प्रेम को
मुझे खींच ले जाना चाहते हो
ठीक उसी दुनिया में, जहाँ
रीतियों में बँधकर मुक़्त हैं!
किंतु! मुझे स्वीकार है
यह मुक्तता का बंधन!
मनुष्य की नग़्न आत्मा की कुरूपता
और टूटती प्रकृति का यह शोर!
छोड़ों! रहने दो मुझे यहीं पर
मैं भीड़ में नहीं चलूँगा,
मैं भीड़ नहीं हो पाऊँगा!
-अमर कुशवाहा